बृजभाषा-
बृजभाषा मूलत: बृज क्षेत्र की बोली है। (श्रीमद्भागवत के रचनाकाल में "व्रज" शब्द क्षेत्रवाची हो गया था। विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तकभारत के मध्य देश की साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने उत्थान एवं विकास के साथ आदरार्थ "भाषा" नाम प्राप्त किया और "ब्रजबोली" नाम से नहीं, अपितु "ब्रजभाषा" नाम से विख्यात हुई। अपने विशुद्ध रूप में यह आज भी आगरा, हिण्डौन सिटी,धौलपुर, मथुरा, मैनपुरी, एटा और अलीगढ़ जिलों में बोली जाती है। इसे हम "केंद्रीय बृजभाषा" के नाम से भी पुकार सकते हैं। बृजभाषा में ही प्रारम्भ में काव्य की रचना हुई। सभी भक्त कवियों ने अपनी रचनाएं इसी भाषा में लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव,घनानंद, बिहारी, इत्यादि। हिन्दी फिल्मों के गीतों में भी बृज भाषा के शब्दों का प्रमुखता से प्रयोग किया गया है।
Type-
आदर्श ब्रजभाषा - अलीगढ़, मथुरा तथा पश्चिमी आगरा की ब्रजभाषा को "आदर्श ब्रजभाषा" कहा जा सकता है।
आधुनिक ब्रजभाषा 1 करोड़ 23 लाख जनता के द्वारा बोली जाती है और लगभग 38,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली हुई है। ब्रजभाषा का कुछ मिश्रित रुप जयपुर राज्य के पूर्वी भाग तथा बुलंदशहर, मैनपुरी, एटा, बरेली और बदायूं ज़िलों तक बोला जाता है। ग्रिर्यसन महोदय ने अपने भाषा सर्वे में पीलीभीत, शाहजहाँपुर, फर्रूखाबाद, हरदोई, इटावा तथा कानपुर की बोली को कन्नौजी नाम दिया है, किन्तु वास्तव में यहाँ की बोली मैनपुरी, एटा बरेली और बदायूं की बोली से भिन्न नहीं हैं। अधिक से अधिक हम इन सब ज़िलों की बोली को 'पूर्वी ब्रज' कह सकते हैं। सच तो यह है कि बुन्देलखंड की बुन्देली बोली भी ब्रजभाषा का ही रुपान्तरण है। बुन्देली 'दक्षिणी ब्रज' कहला सकती है। * भाषाविद् डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है- अपने विशुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी आगरा, धौलपुर, मथुरा और अलीगढ़ ज़िलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा के नाम से भी पुकार सकते हैं। केंद्रीय ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर पश्चिम की ओर बुलंदशहर ज़िले की उत्तरी पट्टी से इसमें खड़ी बोली की लटक आने लगती है। उत्तरी-पूर्वी ज़िलों अर्थात् बदायूँ और एटा ज़िलों में इस पर कन्नौजी का प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। डा. धीरेंद्र वर्मा, कन्नौजी को ब्रजभाषा का ही एक रूप मानते हैं। दक्षिण की ओर ग्वालियर में पहुँचकर इसमें बुंदेली की झलक आने लगती है। पश्चिम की ओर गुड़गाँवा तथा भरतपुर का क्षेत्र राजस्थानी से प्रभावित है। भारतीय आर्य भाषाओं की परंपरा में विकसित होने वाली "ब्रजभाषा" शौरसेनी भाषा की कोख से जन्मी है। गोकुल के वल्लभ-सम्प्रदाय का केन्द्र बनने के बाद से ब्रजभाषा में कृष्ण साहित्य लिखा जाने लगा और इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि सूरदास से आधुनिक काल के श्री वियोगी हरि तक ब्रजभाषा में प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना होती रही।
प्रयोग के प्रमाण-
महानुभाव सम्प्रदाय (तेरहवीं शताब्दी के अन्त) के सन्त कवियों ने एक प्रकार की ब्रजभाषा का उपयोग किया। कालान्तर में साहित्यिक ब्रजभाषा का विस्तार पूरे भारतमें हुआ और अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी में दूर दक्षिण में तंजौर और केरल में ब्रजभाषा की कविता लिखी गई। सौराष्ट्र(कच्छ) में ब्रजभाषा काव्य की पाठशाला चलायी गई, जो स्वाधीनता की प्राप्ति के कुछ दिनों बाद तक चलती रही। उधर पूरब में यद्यपि साहित्यिक ब्रज में तो नहीं साहित्यिक ब्रज से लगी हुई स्थानीय भाषाओं में पद रचे जाते रहे। बंगाल और असम में इन भाषा को ‘ब्रजबुलि’ नाम
दिया गया। इस ‘ब्रजबुली’ का प्रचार कीर्तन पदों में और दूर मणिपुर तक हुआ।
इस देश के साहित्य के इतिहास में ब्रजभाषा ने जो अवदान दिया है, उसे यदि हम काट दें तो देश की रसवत्ता और संस्कारिता का बहुत बड़ा हिस्सा हमसे अलग हो जायेगा।
सुन्दर व्याकरणीय प्रयोग-
उलाहनों की भाषा में बाँकपन सूरदास से ही मिलना प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु इस युग की कविता में वह बाँकपन कुछ और विकसित मिलता है। जैसे-
भोरहि नयौति गई ती तुम्हें वह गोकुल गाँव की ग्वारिन गोरी। आधिक राति लौं बेनी प्रबीन तुम्हें ढिंग राखि करी बरजोरी।
देखि हँसी हमें आवत लालन भाल में दीन्ही महावर घोरी। इते बड़े ब्रजमण्डल में न मिली कहुँ माँगेहु रंचक रोरी।।
देखि हँसी हमें आवत लालन भाल में दीन्ही महावर घोरी। इते बड़े ब्रजमण्डल में न मिली कहुँ माँगेहु रंचक रोरी।।
ब्रजभाषा के प्रति असजगता-
जो भक्त कवि कुशल नहीं थे, वे भाषा के प्रति सजग नहीं रहे, वे सम्प्रेषण के प्रति उदासीन रहे, उनके मन में यह भ्रम रहा कि भाव मुख्य है, भाषा नहीं। वे यह समझ नहीं सकते थे कि भाव और भाषा का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनके अचेत कवि-कर्म की बहुलता का प्रभाव भाषा पर पड़ा, उसमें कुछ जड़ता आने लगी।
मेरी नजरन में भाषा कौ महत्व-
जब ते मानव अस्तित्व में आयौ ऍह,तब ते ई बू बोली भाषा कौ प्रयोग करतौ आयौ ऍह |ई हमारे लैं बोलचाल कौ माध्यम हैंमतै |हम ईऊ कह सकतें कै जिन धव्नीन द्वारा विचारन कौ आदान प्रदान करतें, बाय भाषा कहमतें |अपनी भाषा कूँ बचाबे कूँ सबै ध्यान दैनौ चहियै | कोई भाषा जब तक जड़ रहमतें तब तक बा में रोज़गार के< अवसर प्राप्त ना हौंय, ऐसौ कहबौ गलत ऍह | भाषा की संस्कृति बचाबे कूँ हमारौ बचपन ई काफी ऍह और बचपन में बोली गयी भाषाऐ हम फिर अपनी जीभ पै ते नाँय उतर पामैं |
हर एक बोली उ एक भाषा ऍह पर बा कौ लिखित रूप निश्चित नाँय होय, नाँय तौ हर लोकल आदमी हर वाक्य कूँ एक नपी तुली ब्याकरन के रूप में बोलतौ ऍह,ई ध्यान दैबे की बात ऍह | सबरी भाषाएँ पहलें ऐसें ई हतीं | हौलें हौलें सबकौ विकास भयौ ऍह |ठीक बाई तरह ब्रजभाषा कौ विकास भयौ हतो,पर पद्य के रूप में |गद्य के रूप में ना के बराबर | अबऊ तक ब्रजभाषा भाषा में कोई दैनिक पत्रिका या अखबार नाँय निकरै |
मेरी नजरन में भाषा कौ महत्व-
जब ते मानव अस्तित्व में आयौ ऍह,तब ते ई बू बोली भाषा कौ प्रयोग करतौ आयौ ऍह |ई हमारे लैं बोलचाल कौ माध्यम हैंमतै |हम ईऊ कह सकतें कै जिन धव्नीन द्वारा विचारन कौ आदान प्रदान करतें, बाय भाषा कहमतें |अपनी भाषा कूँ बचाबे कूँ सबै ध्यान दैनौ चहियै | कोई भाषा जब तक जड़ रहमतें तब तक बा में रोज़गार के< अवसर प्राप्त ना हौंय, ऐसौ कहबौ गलत ऍह | भाषा की संस्कृति बचाबे कूँ हमारौ बचपन ई काफी ऍह और बचपन में बोली गयी भाषाऐ हम फिर अपनी जीभ पै ते नाँय उतर पामैं |
हर एक बोली उ एक भाषा ऍह पर बा कौ लिखित रूप निश्चित नाँय होय, नाँय तौ हर लोकल आदमी हर वाक्य कूँ एक नपी तुली ब्याकरन के रूप में बोलतौ ऍह,ई ध्यान दैबे की बात ऍह | सबरी भाषाएँ पहलें ऐसें ई हतीं | हौलें हौलें सबकौ विकास भयौ ऍह |ठीक बाई तरह ब्रजभाषा कौ विकास भयौ हतो,पर पद्य के रूप में |गद्य के रूप में ना के बराबर | अबऊ तक ब्रजभाषा भाषा में कोई दैनिक पत्रिका या अखबार नाँय निकरै |
मेरी नजरन में भाषा कौ महत्व-
जब ते मानव अस्तित्व में आयौ ऍह,तब ते ई बू बोली भाषा कौ प्रयोग करतौ आयौ ऍह |ई हमारे लैं बोलचाल कौ माध्यम हैंमतै |हम ईऊ कह सकतें कै जिन धव्नीन द्वारा विचारन कौ आदान प्रदान करतें, बाय भाषा कहमतें |अपनी भाषा कूँ बचाबे कूँ सबै ध्यान दैनौ चहियै | कोई भाषा जब तक जड़ रहमतें तब तक बा में रोज़गार के< अवसर प्राप्त ना हौंय, ऐसौ कहबौ गलत ऍह | भाषा की संस्कृति बचाबे कूँ हमारौ बचपन ई काफी ऍह और बचपन में बोली गयी भाषाऐ हम फिर अपनी जीभ पै ते नाँय उतर पामैं |
हर एक बोली उ एक भाषा ऍह पर बा कौ लिखित रूप निश्चित नाँय होय, नाँय तौ हर लोकल आदमी हर वाक्य कूँ एक नपी तुली ब्याकरन के रूप में बोलतौ ऍह,ई ध्यान दैबे की बात ऍह | सबरी भाषाएँ पहलें ऐसें ई हतीं | हौलें हौलें सबकौ विकास भयौ ऍह |ठीक बाई तरह ब्रजभाषा कौ विकास भयौ हतो,पर पद्य के रूप में |गद्य के रूप में ना के बराबर | अबऊ तक ब्रजभाषा भाषा में कोई दैनिक पत्रिका या अखबार नाँय निकरै |
No comments:
Post a Comment